जीवन की राह में चुनौतियाँ मेरी हमसफ़र रही हैं:संगीता मिश्र
संगीत है, तो मैं हूँ । कविताएँ भी इसलिये ही लिखती हूँ क्योंकि उनमें छंद है, लय है, संगीत है। मुझे तो इस संसार के कण-कण में संगीत सुनाई पड़ता है।
संगीता मिश्र
कवयित्री, गायिका एवं संगीतकार
आपने अपने शैक्षणिक करियर में विविध उपलब्धियाँ हासिल की हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आपकी शैक्षणिक योग्यताओं के बारे में जानना चाहेंगे।
मैंने बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर बिहार यूनिवर्सिटी (Bihar University, Muzaffarpur) से अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर (Master of Arts in English Literature) किया है ! मैं अच्छी छात्रा थी, अतः एम.ए. में यूनिवर्सिटी की मेरिट लिस्ट में दूसरे स्थान पर रही। इसके अतिरिक्त मैंने इंदिरा गांधी नैशनल ओपन यूनिवर्सिटी (IGNOU) से पत्रकारिता और जन संपर्क डिप्लोमा (Post Graduate Diploma in Journalism and Mass Communication) लिया। शास्त्रीय संगीत की भी विधिवत शिक्षा ली और प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद से “संगीत प्रभाकर” (Graduate in Indian Classical Music) से सम्मानित हुई।
अपने शैक्षणिक काल में और आज की हाई-टेक शिक्षा की तकनीकों में तुलनात्मक रूप से आप क्या अंतर महसूस करती हैं। ऐसी क्या विशेषताएँ हैं जो आपने अपने अध्ययन के दौरान सीखी जो आज की तकनीकों में नहीं हैं?
मैंने नब्बे दशक के पूर्वाद्ध में अपनी औपचारिक शिक्षा पूरी की थी। यद्यपि, मैं अब भी स्वयं को एक विद्यार्थी ही मानती हूँ, यथासंभव पढ़ने, लिखने या कुछ नया सीखने की कोशिश करती हूँ क्योंकि मुझे पता है कि मैंने अब तक वो नहीं सीखा जो मुझसे अपेक्षित था। यही वो मुख्य बात है जो हमारे समय की शिक्षा प्रणाली ने हमें सिखाया। हमारे गुरुओं, शिक्षकों ने हमें हमारा सामर्थ्य और सीमाएँ बतायीं ! “हम चाहे जितना भी पढ़, सीख लें, ख़ुद को ज्ञानी समझने की भूल न करें”, यही वो सीख थी जो हम अपने विद्वान/विदुषी शिक्षकों के सानिध्य में अनजाने ही सीख लेते थे। पर अपनी नयी पीढ़ी को यह बात सिखाने में शायद हमसे चूक हो रही है। आज की शिक्षा व्यापक तो है, पर सतही भी होती जा रही है। ज्ञान के सागर में गहरे डूबने की न तो किसी को इच्छा है ना ही आवश्यकता।
“विनम्रता का अभाव” ही वो एकमात्र ऐसी कमी है जो मुझे आज के बच्चों में दिखती है जिसके लिये आज की शिक्षा प्रणाली कहीं न कहीं ज़िम्मेदार है। इसके अतिरिक्त मुझे कहीं कोई कमी नहीं दिखती। इंटरनेट और आधुनिक तकनीक ने न सिर्फ़ शिक्षा को आसान और सर्वसुलभ बनाया है, बल्कि अनगिनत नये अवसर भी दिये हैं जिसके कारण आज के बच्चों में पराजय और निराशा के भाव कम दिखते हैं। आज के बच्चों को यह पता है कि यदि वे चाहें तो अपनी मुट्ठी में आसमान भर सकते हैं। उन्हें न तो मेहनत से परहेज है और न ही उसका लाभ उठाने से। ये तो अच्छी बात है न !
मेरी एक ग़ज़ल का एक शेर, जो मैंने अपनी बेटी के लिये लिखा था…
“मेहनतकश मेरी नयी नस्ल, कल नाज़ करेगी ‘संगीता’
होगा सूरज भी शर्मसार ‘गर शमा जलायें तबीयत से !”
अपनी प्रोफेशनल यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि आप क्या मानती हैं?
मेरी लेखन यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि थी 1986 में मेरी रचना का प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका “धर्मयुग” में प्रकाशित होना। तब मैं बहुत छोटी थी और वो मेरा पहला ही प्रयास था। एक पल को तो मुझे भी विश्वास नहीं हुआ था, पर जब अपना चित्र, नाम और पता देखा तब भरोसा हुआ। उन दिनों नये लेखकों को सम्मान और प्रोत्साहन दिया जाता था। आज भी याद है कि मुझे पारिश्रमिक में 60 रूपये का चेक मिला था जिसे मैंने कभी नहीं भुनाया क्योंकि तब मेरे नाम कोई बैंक अकाउंट नहीं था।
प्रोफ़ेशन और परिवार में आने वाली चुनौतियों को आपने किस रूप में स्वीकारा। संघर्षमयी जीवन में चुनौतियों से आपका कैसा नाता रहा?
मेरे जीवन ने मुझे बहुत कड़ी चुनौतियाँ दी हैं। बहुत छोटी उम्र में मेरी शादी हो गयी जब मैंने कॉलेज की पढ़ाई अभी शुरु ही की थी। ग्रेजुएट तक न थी और ना ही शादी की वैध उम्र ! दोनों ही परिवार रूढ़िवादी थे, तो लगभग यह तय हो गया कि मेरा आगे का जीवन अब घर की चहारदीवारी के भीतर ही मिट जायेगा ! पर मेरे पिता ने मुझे दहेज के साथ-साथ चुपके से आशा की एक हल्की किरण भी थमा दी। मैंने ज़िद्द की, “मैं पढ़ाई नहीं छोड़ूँगी!” आसान नहीं था एक समूचे परंपरावादी समाज से लड़ना ! एक दिन का काम नहीं था। कई वर्ष लगे, बहुत कुछ खोया। यहाँ तक कि अपने एकमात्र संबल और समर्थक, अपने पिता को भी खो दिया। एक-एक क़दम धीमे-धीमे उठाया, सावधानी से, कि कहीं कुछ टूटे नहीं। इस यात्रा में मैं हज़ारों बार टूटी और फिर ख़ुद को बड़े यत्न से जोड़ा ! अंततः एक दिन मैंने लहरों की उल्टी दिशा में नाव उतारी और यात्रा शुरू की। हवाएँ विपरीत, लहरें विकराल, पर नाव मेरी कमज़ोर न थी। जीवन की राह में चुनौतियां मेरी हमसफर रही है।
मेरी बड़ी बेटी, मैत्रिणी का स्कूल शुरू होने के बाद 1996 में मैंने दैनिक हिंदुस्तान में एक कॉलम लिखना शुरू किया। इसी समय मेरी कविताएँ और आलेख इत्यादि भी छपने शुरु हुए। इसके बाद एक स्थानीय टीवी न्यूज चैनल में एंकर का काम भी किया। पिता की मृत्यु और दूसरी बेटी, अनिंध्या के जन्म के बाद न्यूज चैनल का चुनौतीपूर्ण कार्य संभव नहीं रहा, इसलिये लेखन तक सीमित हो गयी। पर यही वह सीमा है जहाँ मैं अपने आप को असीमित विस्तार के बीच पाती हूँ। जहाँ चारो ओर अगाध समुद्र है और आप अपने हिस्से की एक बूँद पाने का अनवरत प्रयास करते हैं। बस इतनी सी ही है मेरे संघर्ष की कहानी।
आपके सृजनात्मक व्यक्तित्व में काव्य, संगीत, पत्रकारिता और सम्पादन जैसी कलाएँ समाहित हैं। इनमें से कौन सी विधा से आपको ज्यादा लगाव रहा है?
संगीत ! संगीत है, तो मैं हूँ । कविताएँ भी इसलिये ही लिखती हूँ क्योंकि उनमें छंद है, लय है, संगीत है। मुझे तो इस संसार के कण-कण में संगीत सुनाई पड़ता है। अगर कोई चीखे तो वह भी एक कर्कश धुन ही है। अकेलेपन में कुछ न कुछ गुनगुनाती या सुनती रहती हूँ । हाँ, अब कुछ स्वास्थ्य कारणों और रियाज़ छूटने के कारण मेरे सुर नहीं सजते। जब कण्ठ में स्वर न सज पायें तो उन्हें स्याही में घोल, काग़ज़ पर उतार देती हूँ । बस वही है मेरी कविता…मेरे अधूरे संगीत की साहित्यिक अभिव्यक्ति !!
एक संगीतज्ञ के रूप में अपनी किन उपलब्धियों के बारे में बताना चाहेंगी?
अपने परिवार में मैं पहली लड़की थी जिसने खुलकर संगीत को रुचि की तरह अपनाया। उससे पहले लड़कियों के लिये कला का अर्थ ‘दस्तकारी’ और संगीत का अर्थ ‘विवाह या त्योहारों के गीत गाना’ भर था। जब पहली बार मैंने स्टेज पर गाया तो मेरी माँ को परिवार के बुज़ुर्गों का कड़ा विरोध सहना पड़ा। पर, शायद भीतर ही भीतर उन्हें भी संगीत से लगाव था, तो उन्होंने मुझे कभी रोका नहीं और शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा दिलायी। फिर मेरे स्कूल ने मुझे इंटर स्कूल प्रतियोगिताओं में भेजना शुरू किया और मैं हर जगह से ट्रॉफी जीत लाती । पर मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि थी जब मुझे 1982 में हिन्दी सिनेमा की प्रसिद्ध पार्श्व गायिका, मुबारक बेगम के लाइव शो में उनका ही एक गीत, “ऐ मेरे हमराही” गाने का मौक़ा मिला। हालाँकि मैं उनके सामने नहीं गा पायी, पर उनके साथ एक स्टेज शेयर करने का उत्साह आज तक नहीं भूला।
आप एक स्थापित कवयित्री हैं। लेखन से आपका नाता कैसे जुड़ा। लेखन में आपके प्रेरणास्रोत कौन रहे हैं?
मैंने बहुत छोटी उम्र से लिखना शुरू किया था। मुझे पढ़ने का बड़ा शौक था, इसलिये मेरी शब्दावली अच्छी थी। लगभग बारह या तेरह की रही होऊँगी जब पहली बार कविता जैसा कुछ अपनी स्कूल की नोटबुक के पिछले पन्ने पर लिखा। तब मेरे घर में कला, साहित्य, संगीत इत्यादि का ख़ूब माहौल था, पर लड़कियों के लिये यह सब वर्जित था। वह कविता लिखने के बाद मैंने डर कर उसके नीचे “महादेवी वर्मा” का नाम लिखकर उसे छुपाने की मूर्खतापूर्ण कोशिश की। पर मेरे भाई को पता चल गया कि इस नोटबुक में कोई महादेवी नहीं, बल्कि उसकी बहन के ऐसे कारनामे छुपे हैं जो उसे नहीं करने चाहिए। बस, फिर क्या था ! माँ तक बात पहुँच गयी। पहले तो मेरी पिटाई हुई, फिर माँ ने मेरी शिकायत पिता से की। मैं डर से काँप रही थी पर एक अजूबा हुआ। वो पढ़कर मुस्कुरा रहे थे। बोले, “अच्छा है, पर और मेहनत करो। पहले कम से कम सौ शब्द सीखो, फिर एक शब्द लिखो !”
उनकी वो बात मेरे मन में घर कर गयी ! मैं ख़ूब पढ़ती, और लिखने की कमज़ोर कोशिशें करती। शेक्सपियर से लेकर दिनकर, वर्ड्सवर्थ से लेकर निराला, जो मिल जाएँ सब पढ़ती। कहानियाँ, उपन्यास, कविताएँ … हिंदी, इंग्लिश, संस्कृत … समझ न आये, फिर भी पढ़ जाती। यहाँ तक कि कानून की किताबें भी। शायद यही उन्माद हमें लिखना सिखाता है।
परिवार में मेरे प्रेरणास्रोत थे मेरे बड़े बाबूजी, (मेरे पिता के बड़े भाई) चीफ जस्टिस स्वर्गीय प्रभा शंकर मिश्र। वे पटना, मद्रास, हैदराबाद और कोलकाता उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश होने के साथ साथ एक श्रेष्ठ कवि और साहित्यकार भी थे। अपने प्रारंभिक दिनों में वे प्रायः आकाशवाणी पटना से अपनी कविताएँ पढ़ते और मैं अभिभूत होकर सुनती थी। उनके अतिरिक्त अज्ञेय, दिनकर, मैथिली शरण गुप्त और महादेवी वर्मा हिंदी में तथा जॉन कीट्स, टी एस इलियट, वर्ड्सवर्थ इत्यादि इंग्लिश में, मुझे बहुत पसंद हैं।
एक कवियत्री के रूप में विभिन्न काव्य संग्रहों में आपकी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। ऐसा कौन सा काव्य संग्रह है जिसमें छपना आपके लिए एक बड़ी उपलब्धि रही?
सभी प्रिय हैं मुझे, पर यदि किसी एक को चुनना ही पड़े तो मैं उसे चुनूँगी जिसका मैंने संपादन किया है। उस संकलन का नाम है “सुनहरा स्पर्श”, जो दिसंबर 2018 में प्रकाशित हुआ था। इसका संकलन और प्रकाशन मेरी एक प्रिय कवयित्री मित्र ने किया था और यह तत्कालीन हिंदी कवियों की सुंदर रचनाओं का एक अनूठा संकलन है। संपादन के चुनौतिपूर्ण उत्तरदायित्व का निर्वहन करने के कारण यह आज भी मेरा पसंदीदा संग्रह है जबकि इसके बाद भी मैंने अनेक काव्य संग्रहों में प्रतिभागिता की।
आपका एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित होने जा रहा है- ‘’हम ख्वाब से बातें करते हैं” यह शीर्षक बेहद प्रभावित करता है। ग़ज़ल संग्रह के इस नाम को किस रूप में परिभाषित करना चाहेंगी। इस संग्रह को पूरा करने में सबसे कठिन पल आपके लिये कौन सा रहा?
‘’हम ख्वाब से बातें करते हैं” शीर्षक दरअसल मेरी एक ग़ज़ल के शेर से लिया गया है जो कुछ इस तरह है…
“कुछ आब सजाकर आँखों में, महताब से बातें करते हैं
सब बातें करते हैं लब से, हम ख़्वाब से बातें करते हैं”
जैसा कि ये शब्द कहते हैं, यह ख्वाबों की, सपनों की किताब है। टूटते, जुड़ते, जुड़कर फिर से टूटते सपने… सपनों के भीतर छुपकर बैठे सपने, जागती आँखों से देखे गये सपने… सपने, जो हमें जीने का कारण देते हैं… और, जब आप अन्त की दहलीज़ को लगभग छू चुके हों तब हवा के एक तेज़ झोंके की तरह आपको दुबारा ज़िन्दगी की ओर उड़ा ले जाते सपने…
यह पिछले 35 वर्षो में लिखी मेरी 151 ग़ज़लों का संग्रह है जो देवनागरी-उर्दू में लिखी गयीं हैं। बड़े यत्न से लिखा है मैंने इन ग़ज़लों को। एक-एक लफ्ज़ को बड़ी तरतीब से, एहतियात से संजोया है…वैसे तो मैने हिंदी और इंग्लिश की लगभग हर विधा में हज़ारों कविताएँ लिखीं हैं पर उर्दू शायरी का पाठकों पर कुछ और ही असर होता है। उर्दू की मिठास इंद्रजाल सी फैलती है और सबको अपने चुंबकीय प्रभाव में खींच लेती है। यही कारण था कि सबसे पहले मैंने अपना ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित करने का प्रयास किया और यह अब आपके सामने है।
इस ग़ज़ल संकलन के प्रकाशन की राह में बहुत सारी कठिनाइयाँ आयीं। पिछले लगभग दो वर्षों से यह देश के एक अग्रणी प्रकाशन समूह के पास पड़ा रहा जिन्होंने न केवल इसे छापने में उत्साह दिखाया था बल्कि मुझे आश्वासन भी देते रहे कि यह जल्द ही प्रकाशित होगा । पर देर होती गयी । अंततः मैंने इसे सर्वभाषा ट्रस्ट प्रकाशन के पास भेजा और उन्होंने सहर्ष इसे छापने में रुचि दिखायी। यह संकलन अब एमेज़ॉन (Amazon) पर उपलब्ध है।
आप अपने प्रोफेशनल करियर में पत्रकारिता, अलग-अलग मीडिया हाउसों से संबद्ध रही हैं। आज की पत्रकारिता एकतरफा और समझौतावादी हो गयी है। पत्रकारिता के मूल्यों के पतन के क्या कारण आप मानती हैं?
वह खोजी पत्रकारिता ( investigative journalism ) का दौर था जब समाचार प्रकाशन या प्रसारण से पहले तथ्यों की पड़ताल की जाती थी। एक पत्रकार के लिये ये बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं था कि जन- मानस पर उसके न्यूज़ का असर सुखद ही हो। मुद्दा सिर्फ़ सच सामने लाना ही होता था। बाक़ी, उस पर राय बनाना जनता का काम था। पर, आज TRP का दौर है। आज जनता की राय जानकर, समझकर ही समाचार परोसे जाते हैं। बहती हवा के रुख़ के साथ समाचार अपने तेवर बदलते हैं… मीडिया हाउस बहती गंगा में हाथ धोते हैं, भले ही “सच” उस गंगा में डूब मरे।
पत्रकार होना आज रुझान या फ़ितरत नहीं, बल्कि शौक़ और हैसियत के बात हो गयी है। यही कारण है कि आज की पत्रकारिता अवसरवादिता की भेंट चढ़ चुकी है। मीडिया हाउस आज बिजनेस घरानों में तब्दील हो चुके हैं। कभी-कभी तो ये मीडिया हाउस कम, धार्मिक संगठन अधिक जान पड़ते हैं। ऐसे में मूल्यों का पतन होना तो निश्चित ही था।
हिन्दी भाषा आपको कितनी प्रिय लगती हैं? इस भाषा की सबसे बड़ी क्या विशेषता है जो अन्य भाषाओं में देखने को नहीं मिलती?
हिंदी न सिर्फ़ मेरी मातृभाषा है बल्कि मेरी आत्मा की भाषा भी है। मेरी शिक्षा अंग्रेज़ी माध्यम से हुई इसलिये शुरूआत में मुझे हिन्दी लिखने समझने में परेशानी होती थी। पर, कॉलेज के दिनों में मेरी हिन्दी शिक्षिका ने मुझे इतना प्रभावित और प्रोत्साहित किया कि मैंने अच्छा साहित्य पढ़ना शुरू किया। पर, मुझे इस भाषा की विशेषताएँ तब समझ आयीं जब मैंने प्रख्यात संस्कृत विद्वान, आचार्य डा. कात्यायन प्रमोद पारिजात शास्त्री से संस्कृत पढ़ी। संयोगवश वो मेरे रिश्तेदार थे । उन्होंने बड़े विस्तार से मुझे भाषाओं के वैज्ञानिक और तार्किक पक्ष के विषय में बताया था।
एंगलो-सैक्सन या जर्मन मूल की भाषाओं की तुलना में हमारी संस्कृत और उससे उत्पन्न अन्य भाषाएँ अधिक सुनियोजित (planned) और व्याकरणिक (grammatical) हैं। संस्कृत का व्याकरण अति विस्तृत (detailed) और समयेतर (timeless) है। हाँ, यह बात सही है कि अंग्रेज़ी भाषा का शब्द भंडार बहुत समृद्ध है और यहाँ हमारी हिन्दी पीछे रह जाती है, पर जहाँ तक उच्चारण और व्याकरण की बात है, हम उनसे बहुत आगे हैं। इंग्लिश का Phoneme अक्सर लिखने और बोलने में अगल-अलग होता है जिससे पढ़ने-समझने में मुश्किलें आती हैं। पर हिन्दी में ध्वनि के साथ यह परेशानी बिल्कुल भी नहीं है। हम जो लिखते हैं वही बोलते हैं। यह मात्र एक छोटा सा उदाहरण है जो सिद्ध करता है कि हमारी हिन्दी भाषा अंग्रेज़ी से कहीं अधिक व्यवस्थित (organized), पद्धतिबद्ध (systematic), तार्किक (logical) और वैज्ञानिक (scientific) है।
नई दिल्ली में रहते हुए अपने गृह नगर पटना को किस तरह याद करती हैं। पटना शहर का सबसे बड़ा आकर्षण क्या है जो सबको आकर्षित करता है?
“अपनी मिट्टी से आँख भर जहाँ भी जाती हूँ
जाने क्यों वो फिज़ा दिखती है अपनी-अपनी सी”
पटना मेरी रगों में बहता है। यही कारण है कि पिछले छह सालों में नई दिल्ली कभी परायी नहीं लगी, क्योंकि पटना पल भर को नहीं छूटा। पारिवारिक कारणों से पटना आती-जाती रहती हूँ, इसलिये कमी अधिक नहीं खलती। हाँ, मैं अपने बग़ीचे की हरियाली और ताज़ी हवा की कमी यहाँ महसूस करती हूँ । पाँवों की नीचे अपने हिस्से की ज़मीन और सिर पर अपने हक़ का आसमान दुर्लभ है दिल्ली के कॉन्क्रीट जंगलों में।
पटना के पौराणिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत और महत्व के बारे में तो सभी जानते हैं, पर जिन मानवीय मूल्यों की बात मैं करने वाली हूँ उनकी कमी महानगरों में खलती है। आज भी वहाँ किसी घायल को सड़क पर पड़े देख लोग मदद के लिये रुकते हैं … किसी बच्चे को नशा इत्यादि करते देख सब मिलकर उसे रोकते, समझाते हैं … मिलकर ज़रूरतमंद की मदद करते हैं … और वहाँ लड़कियाँ घर से बाहर आज भी सुरक्षित हैं… !!
अपनी दोनों बेटियों से आपकी क्या अपेक्षाएँ हैं। दोनों की रुचियाँ क्या हैं? दोनों में से ज्यादा क्रिएटिव कौन हैं?
मेरी दोनों बेटियाँ, मैत्रिणी और अनिंध्या मेरे आस्तित्व का अविभाज्य अंश हैं। उनसे मेरी अपेक्षाएँ जितनी बड़ी हैं उतनी ही मामूली भी हैं। मैं चाहती हूँ कि वो अपने सपनों को भरपूर जियें पर उन्हें स्वार्थी होने की छूट बिल्कुल भी नहीं है। दोनों ही मुझसे बिल्कुल विपरीत, विज्ञान की विद्यार्थी रहीं हैं, पर उनकी रुचियाँ एकदम कलात्मक हैं।
दोनों ही क्रिएटिव हैं। मैत्रिणी हर-फ़न-मौला है, गायन, नृत्य, चित्रकारी, लेखन, हर काम बख़ूबी करती है, हिंदी और इंग्लिश दोनों ही भाषाओं में सुंदर अभिव्यक्ति है उसकी। …जबकि अनिंध्या बुद्धिमान और ज़हीन है, अपने क्लास की टॉपर रही है और अंग्रेज़ी भाषा की एक उभरती हुई बेहतरीन कवयित्री भी जिसे राष्ट्रीय/अंतराष्ट्रीय स्तर पर कई काव्य पुरस्कार मिल चुके हैं।
उन दोनों के विशेषताओं को बतलाती मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ…
शेफाली – तितली की माँ हूँ
एक महके और एक इतराये
एक निष्कलुष, एक इंद्रधनुष
अनिंध्या – मैत्रिणी कहलायें
श्रृंगार मेरा दोनों से ही है
गंगा – जमुनी आँचल वो मेरा
एक मृदु स्मिति, एक अठखेली
दृग नयनों का काजल वो मेरा !
अपनी सफलताओं का श्रेय किसे देना चाहेंगी?
उन सभी लोगों को जिन्होंने मेरी आलोचना करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी ! और, इससे भी अधिक उन विशिष्ट लोगों को जिन्होंने मुझे गिराने का हर संभव प्रयास किया। विश्वास करें, हम सब के चारों ओर ऐसे लोग बहुतायत में होते हैं। मेरे आसपास भी ऐसे कई लोग रहे जिनका पसंदीदा काम था मेरी अस्मिता को चोट पहुँचाना। मेरे पास उनके लिये बस एक ही उत्तर था… मौन ! मैं उनके सामने चुप रहती हूँ और अपनी अस्मिता बचाये रखने के अपने हर प्रयास का श्रेय भी उन्हें ही देती हूँ !!
अंत में मैं कॉरपोरेट इनसाइट की पूरी टीम का हृदय तल से आभार व्यक्त करती हूँ कि आपने मुझे अपनी भावनाएँ व्यक्त करने का अवसर दिया । आपकी प्रश्नावली रोचक होने के साथ विचारोत्तेजक भी रही जिसके कारण मुझे अपने जीवन के पुनरावलोकन का एक सुंदर मौका मिला । हार्दिक धन्यवाद आप सबका !!