इनसाइट इंटरव्यू

मेरे लिए जिंदगी का मतलब सिर्फ चलना और चलना रहा

प्रयोग करना मेरे स्वाभाव का हिस्सा रहा है

 

डॉ. बब्बन जी

डॉ. बब्बन जी का जन्म 12 जुलाई 1981 को बिहार के समस्तीपुर जिले में हुआ। बचपन से ही वे विज्ञान और साहित्य दोनों में रुचि रखते थे। 11 वर्ष की उम्र में उन्होंने पहली वैज्ञानिक संकल्पना प्रस्तुत की और बाल वैज्ञानिक के रूप में पहचान बनाई।

साहित्य में उनकी शुरुआत गज़ल “मेरे दिल में सिर्फ इश्क ही इश्क है” से हुई। पहली प्रकाशित रचना “लोथड़ों के गुलाम” थी। पढ़ाई के दौरान आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री ने उनकी साहित्यिक प्रतिभा को पहचाना। उन्होंने कई भावनात्मक, सामाजिक और स्त्री-केन्द्रित कविताएँ लिखीं, जैसे – “एक देह नहीं औरत”, “माँ मुझे तू जन्म दे”, “बेटी हूँ” आदि।

2008 में उनका पहला काव्य संग्रह “रीत” प्रकाशित हुआ। 2023 में फिल्म “हमारे बारह” का सारांश गीत लिखकर उन्होंने अपने फिल्मी जीवन का आगाज किया। वे एक संवेदनशील कवि, वैज्ञानिक और छायाकार हैं।

वैज्ञानिक और गीतकार डॉ. बब्बन जी से गुरबीर सिंह चावला की विशेष बातचीत

आपकी वैज्ञानिक यात्रा की शुरुआत कैसे हुई और विज्ञान के प्रति आपकी रूचि कब जागी?

मेरी वैज्ञानिक यात्रा के सूत्रधार मेरे पापा हैं, जो एक जंतु विज्ञानी हैं। उन्होंने मेरे जीवन में खोज और अनुसन्धान की जो अलख बचपन में जगाई, वह अलख आज तक अनवरत जल रही है। मुझे याद है, जब मैं सात साल का था, तो पापा से पेड़-पौधों के बारे में खूब सवाल पूछा करता था। मैं उनसे पूछा करता था कि कैसे पौधें अपना पोषण करते हैं, पौधों को कैसे पहचाना जाता है। पापा ने मेरी इसी रूचि को सही राह दिखाने का काम किया। वास्तव में पापा ही मेरे पहले शिक्षक और शोध मार्गदर्शक हैं। मेरे वैज्ञानिक जीवन की औपचारिक रूप से शुरुआत जवाहर लाल नेहरू बाल विज्ञान प्रदशनी 1992-93 से हुई, जिसमें मैंने अपने पिता की प्रेरणा और मार्गदर्शन से 1992 के दौर में केवल 10-15 रूपये की लागत से और विज्ञान की जितनी समझ उस वक़्त थी उसके नियम का इस्तेमाल करते हुए, मैंने मिट्टी से बने एक ऐसे गमले का आविष्कार किया जिसमें पानी को महीनों तक जमा किया जा सकता था, जो पौधों को काफी लम्बे समय तक पानी की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम था। मेरे इस आविष्कार को जल संरक्षण कोटि में जिला स्तर पर प्रथम पुरुस्कार मिला और फिर जिला शिक्षा विभाग के द्वारा मेरे इस आविष्कार को जिला प्रतिनिधि के रूप में राजस्तरीय प्रतियोगिता के लिए चयनित किया गया। राजस्तरीय प्रतियोगिता में भी इस आविष्कार को काफी सराहा गया और पुरुस्कृत कर उसे राष्ट्रीय स्तर के प्रदर्शनी के लिए चयनित किया गया। विज्ञान की दुनिया में, खोज और अनुसन्धान की दुनिया में मेरा यह पहला प्रयास था और पिता के मार्गदर्शन, मां की तपस्या और गुरुजनों के आशीर्वाद से मुझे मेरे पहले ही प्रयास में सफलता मिली और जिला और राज्य स्तर पर एक पहचान मिली। इस शुरूआती सफलता ने मेरी वैज्ञानिक यात्रा को एक नया आयाम प्रदान किया और मुझे और आविष्कार करने और खोज करने के लिए प्रेरित किया। इसके बाद स्कूली दौर में ही कई नए आविष्कार कर डाले, जो आज भी प्रासंगिक है।

विज्ञान और साहित्य को एक साथ साधना कितना चुनीतिपूर्ण रहा है?

अगर मैं एक बात आपको कहूं तो आप हँसगे! दरअसल आज तक इस जिंदगी में मुझे कुछ भी चुनौती भरा लगा ही नहीं। मेरे लिए चुनौती शब्द है ही नहीं। मैं आपको बताऊँ, मेरी राहों में सिर्फ अंगारे ही अंगारे थी, कांटे ही कांटे उगे थे, दिक्कतें ही दिक्कतें थी, समाज के उलाहने थे, पर वो मेरे रास्ते, मेरी रफ़्तार, मेरी गति और मेरे निश्चय को नहीं बदल सके। इसलिए नहीं बदल सके कि मैं जिंदगी की शुरुआत में ही अच्छी तरह से समझ गया था कि संघर्ष ही जिंदगी है, चुनौती ही असल में जिंदगी है, उतार-चढ़ाव, गिरना और उठना ही जिंदगी है। मेरे लिए जिंदगी का मतलब सिर्फ चलना और चलना रहा।

मैंने अपने आप को जिंदगी के कुछ शुरूआती साल में ही ढूंढ लिया था। मैंने महसूस किया था कि मेरा दिमाग जहाँ विज्ञान के रोमांच से बड़ा हुआ है, विज्ञान के अनगिनत सवालो से परेशान होने के बदले उसका माकूल जवाब ढूढ़ने के लिए व्याकुल है, वही मेरा मन, मेरा दिल संगीत के धुनों पर थिरकने को आतुर है। यही वो बात थी, जहाँ मैंने तय किया कि मैं दोनों (विज्ञान और गीत-संगीत) के साथ आगे की जिंदगी तय करूँगा। मुझे याद है कि वह समय 1996 का था जब मैंने यह निर्णय ले लिया था कि मैं किसी एक के बिना अधूरा हूँ। मैं विज्ञान के बिना जी नहीं सकता था और संगीत के बिना खुश नहीं रह सकता था। यही से दोनों को एक साथ साधने का सिलसिला चल पड़ा जो आज तक अनवरत जारी है, बिना किसी चुनौती के, बिना कोई शोर किये। मुझे विज्ञान और साहित्य को एक साथ साधने के लिए कोई विशेष या अतिरिक्त प्रयास करने की कोई जरुरत ही नहीं पड़ी। अपने आप सब कुछ होता चला गया। हाँ इसमें वक़्त ने बहुत अहम् भूमिका अदा की। वक़्त की महत्ता/वरीयता/जरुरत के अनुसार विज्ञान और साहित्य पर अपना ध्यान केंद्रित करता रहा। आमतौर पर लिखने का काम मैं रात में ही करता हूँ। जब चारों तरफ सन्नाटा छा जाता है। एक अहम् बात यह है कि चिंतन और फिर सृजन की प्रक्रिया, चाहे वो विज्ञान के लिए हो या साहित्य के लिए, दिन-रात जारी रही।

आपने वैज्ञानिक अनुसन्धान में कौन -कौन से प्रमुख योगदान दिए हैं?

मेरे शोध और अनुसन्धान का मुख्य विषय रोग के होने के क्रियाविधि (मैकेनिज्म ) रहा है। मेरे व्यापक शोध ने पहली बार यह प्रदर्शित किया कि कैसे साइटोकाइन, जो होस्ट प्रोटीन है, माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस के डॉर्मेंसी से सम्बंधित छोटे हीट शॉक प्रोटीन जीन की अभिव्यक्ति को नियंत्रित करता है। मेरा यह काम तपेदिक के लिए साइटोकाइन आधारित इम्यूनोथेरेपी के विकास की ओर ले जाता है। इनके अतिरिक्त, मैंने गर्भाशय-ग्रीवा कैंसर के क्षेत्र में नया ज्ञान लाने के साथ-साथ स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले कीटनाशकों की क्रियाविधि को स्पष्ट करने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

आपकी साहित्यिक यात्रा की प्रेरणा क्या रही?

विज्ञान के साथ-साथ मेरे दिल में साहित्य भी है, इसका मुझे आभास तब हुआ जब मैंने अपनी पहली ग़ज़ल “मेरे दिल में सिर्फ इश्क़ ही इश्क़ है” लिखी थी और यह दौर था 1996 का, पता नहीं मैंने यह ग़ज़ल पहली बार कैसे लिख दी, पर जब लिखने के पश्चात पढ़ा तो अहसास ही नही हुआ कि मैं ग़ज़ल भी लिख सकता हूँ। इसके बाद मैंने अपनी पहली कविता “लोथड़ों के गुलाम” लिखी, जो उस दौर के प्रमुख दैनिक समाचार पत्र “आर्यावर्त” में प्रकशित हुई। यह मेरा प्रथम प्रकाशन था। इस कविता के लिखने के बाद मैंने मुख्य रूप से अपना ध्यान कविताओं पर ही केंद्रित कर दिया और दो दशक से ज्यादा समय तक सोई हुई आत्मा को झकझोर देनीवाली, समाज की विषमताओं, एक औरत की मौन पीड़ा और दुःख को आवाज देने वाली अनगिनत कविताओं का सृजन किया जिसमें “एक देह नहीं औरत “, “ऐ राम खिलावन भैया “, “माँ, मुझे तू जन्म दे”, “बेटी हूँ”, “प्रेम दीप अभी बुझा नहीं”, “नयी सदी” प्रमुख है।

साहित्य लेखनी के शुरूआती दौर में मुझे भारतीय साहित्कारों के रचना संसार का विशेष ज्ञान नहीं था, लेकिन समय के साथ मैंने भारतीय साहित्य को जानने और समझने का प्रयास किया। अगर देखे तो मुझे भारतीय साहित्य के छायावाद काल के तमाम कवियों की रचनाएं मुझे उद्वेलित करती रही है। लेकिन सूर्यकांत त्रिपाठी ‘ निराला’ की लेखनी और विषय-वस्तु ने मेरे लेखकीय जीवन पर बहुत ही गहरा प्रभाव छोड़ा है। भारतीय साहित्य के प्रगतिवाद युग के प्रतिनिधि कवि नागार्जुन का रचना संसार और उसका भारतीय आम मानस के दुःख, संघर्ष और अनन्तहीन पीड़ा से सीधा जुड़ाव मुझे सीधे और सरल तरीके से, बिना किसी लाग- लपट के, लिखने के लिए मजबूर करती रही है। भारतीय सिनेमा के पुरोधाओं में साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, और गुलजार की दिल को छू लेनेवाली लेखनी ने मुझे भारतीय सिनेमा में योगदान करने के लिए प्रेरित किया।

क्या विज्ञान की पृष्टभूमि ने आपकी लेखनी को किसी विशेष रूप से प्रभावित किया है?

मेरी वैज्ञानिक सोच, रूचि और अनुभव ने मेरी लेखनी को बहुत गहराई तक प्रभावित किया है। लेखनी के दौरान आनेवाले तथ्यों की जाँच, पड़ताल और फिर उसकी साक्ष्य पर आधारित प्रस्तुति में विज्ञान की कार्यशैली और वैज्ञानिक तकनीक ने काफी मदद की। विज्ञान ने मुझे काफी प्रेरित किया कि मैं लोगो की स्वास्थ्य समस्याओं को साहित्य में जगह दूँ और फिर उसको लेकर जिंदगी का ताना-बाना बुनूँ, जो पठनीय हो और पाठक की चेतना पर एक सकारात्मक प्रभाव छोड़ पाए। इसका सबसे ताजा उदाहरण – मेरे द्वारा सृजित कहानी “जिंदगी-ऐ-जिंदगी” है, जिसमें कहानी का मुख्य विषय कैंसर है। वैज्ञानिक पृष्भूमि से आने के कारण मुझे इस कहानी में उसके सही कारक तत्वों को आम आदमी की कहानी बना कर लाने में सहायता मिली। मैं जब बनारस में पंडित मदन मोहन मालवीय कैंसर केंद्र में सेवारत था तो वही पर मुझे इस कहानी को लिखने का आधार मिला। वैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार पूर्वी उत्तर प्रदेश के गंगा वाले क्षेत्र में पित्ताशय की थैली के कैंसर का बहुत ही प्रसार है। मैंने इसी तथ्य को केंद्रित कर जिंदगी-ऐ-जिंदगी का सृजन किया।

साहित्य की कौन सी विधा आपको सबसे अधिक पसंद है और क्यों?

निश्चित रूप से गीत, ग़ज़ल और कविता। क्योंकि इन विधाओं के माध्यम से आप कम शब्दों के माध्यम से बहुत कुछ कह देते हैं। लेखनी के ये माध्यम आदमी और समाज को सीधे प्रभावित करती हैं। आपके अच्छे गीत, ग़ज़ल और कविता को सुनकर आम मानस बिना किसी के परवाह किये नाचने, झूमने और थिरकने को मजबूर हो जाता हैं। मुझे तो लगता हैं कि साहित्य का इससे बड़ा कोई और मुकाम नहीं हो सकता। और उसे रचने वाले साहित्यकार को इससे बड़ा इनाम नहीं हो सकता है।

क्या आपको लगता है कि भारत में विज्ञान और साहित्य का मेल अधिक होना चाहिए?

मुझे लगता है कि विज्ञान और साहित्य एक शरीर की दो आँखें हैं। भारत का सुनहरा इतिहास इसका बेहतर जवाब है। अगर भारतीय इतिहास देखे तो भारत की संस्कृति में आदिकाल से ही विज्ञान और साहित्य का चोली दामन का साथ रहा है। नए वक़्त के अनुसार इसे और प्रगाढ़ और मजबूत करने की निश्चित रूप से जरुरत है। भारत की जमीन इतनी उर्वर है कि यहाँ इन दोनों आयामों का संगम होना बहुत ही आसान है।

आपको अपने लेखन में सबसे बड़ी कोई चुनौती क्या लगती है?

मुझे आज तक कोई चुनौती का एहसास ही नहीं हुआ। इसका एक मुख्य कारण है कि मैं अपने दृष्टिकोण को वक़्त के तराजू पर हमेशा परखता रहता हूँ। जो सबसे सही और उचित लगता है उसको अपनाने और उसके साथ चलने का भरसक प्रयास करता हूँ। इसलिए अगर कुछ समस्याएं आई भी तो उससे घबराया नहीं बल्कि उसको बारीकी से समझने का प्रयास किया और फिर उसका समाधान भी वक़्त के साथ ढूंढने की कोशिश की।

आपकी साहित्यिक कृतियों को बॉलीवुड में कैसे पहचान मिली?

वैज्ञानिक सेवा के साथ साहित्यिक यात्रा भी जारी थी। फ़िल्मकार कमल चंद्रा अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म “हम दो हमारे बारह” जिसे रिलीज के दौरान सेंसर बोर्ड ने “हमारे बारह” कर दिया था, का निर्देशन कर रहे थे। यह समाज की एक बड़ी समस्या पर आधारित फिल्म थी। इस फिल्म का सारांश गीत लिखने के लिए वह बालीवुड के बाहर के गीतकार को मौका देना चाहते थे। फिर उनके प्रस्ताव पर मैंने ज्वलंत मुद्दे पर आधारित इस बड़ी फिल्म का सारांश गीत लिखा जिसके बोल थे “दिल पतंग सा उड़ रहा है”। इस गीत में मैंने पूरी फिल्म की कहानी का सुखद अंत को दिखाने का प्रयास किया। मेरे लिखे गीत को मधुर संगीत से संवारा ‘ केरला लव स्टोरी’ फेम के संगीतकार बिशाख ज्योति ने। जब फिल्म लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद 21 जून 2024 को पूरे देश में रिलीज हुयी तो मेरे लिखे और बिशाख ज्योति द्वारा संगीतबद्ध किये इस गाने को खूब सराहा गया। हमारे बारह फिल्म की रिलीज के साथ मैंने विधिवत रूप से बॉलीवुड गीतकार के रूप में अपनी नयी जीवन यात्रा का आगाज किया और मेरा बॉलीवुड गीतकार बनने का सपना लगभग दो दसक से भी ज्यादा समय बीतने के बाद पूरा हुआ। मेरी इस नए बॉलीवुड पहचान का श्रेय संवेदनशील एवं मेधावी फिल्मकार कमल चंद्रा को जाता है। बिशाख ज्योति का असीम प्यार और सहयोग का भी मेरे इस नए जीवन की सफलता में बहुत बड़ा योगदान है।

क्या आपने फ़िल्मी लेखन में कोई नया प्रयोग किया है?

प्रयोग करना मेरे स्वाभाव का हिस्सा रहा है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि मैं एक रास्ता को पकड़ कर चुप-चाप चलता जाऊं और कोई परिवर्तन न करूँ। ये जरूर है कि मैं प्रयोग करने या कोई नया परिवर्तन करने से पहले काफी सोच विचार करता हूँ। अगर लगता है कि प्रयोग या परिवर्तन करना बेहद ही लाजिमी है तो मैं पूरे तन्मयता के साथ उस काम में लग जाता हूँ। मेरी लेखनी इसका एक उदाहरण है। मैं जब भी गीत, ग़ज़ल या कविता लिखता हूँ तो सृजन के दौरान मेरी कोशिश रहती है कि लेखन का विषय और पात्र काल्पनिक न हो, बल्कि जमीनी हकीक़त से वाकिफ हो।

मेरी अधिकतर ग़ज़लों में समाज, आम आदमी की जिंदगी और उसके दुःख दर्द, उसके भावों का लगभग पूरी ईमानदारी बरतते हुए सही चित्रण किया गया है। अगर आप मेरे गीत “ ऐ मुफ़लिसी दिखा मुझे रास्ता” को सुने और पढ़े तो मैंने इसमें लिखा है “ पैबंद लगी हसरतों के बल चला, जिंदगी लिखने तुम्हारी दास्तां, धुंध में है लिपटा सारा जहां, ऐ मुफ़लिसी दिखा मुझे रास्ता। सामने है सागर फैला, फिर भी मन है प्यासा, हर उठती लहरों पर, लिखा है नाम किसी का, ऊँचे महलों में रहनेवाले, हैं बनाते गरीब को तमाशा, ये कैसी दुनिया है जहाँ, आदमी आदमी को नहीं चाहता।ऐ मुफ़लिसी दिखा मुझे रास्ता। या फिर मेरा दूसरा गीत “ एक गरीब का घर जला के कितना खुश होते हो” जिसमें नयी दुनिया के विद्रूप चेहरे का बिना कोई नमक – मिर्च लगाए चित्रण किया गया है इन शब्दों के द्वारा “ एक गरीब का घर जला के कितना खुश होते हो, खुश होना इतना ही जब जले घर तेरा भी “। मेरी कोशिश है और रहेगी कि मैं अपना रचना धर्म निभाते हुए अपनी बची जिंदगी में समाज और वक़्त की सच्चाई को थिएटर के स्क्रीन पर ला सकूँ। शायद मैं चुप – चाप इस दुनिया से नहीं जाना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मुझे मेरी अभिव्यक्ति की सशक्ता और निष्पक्छता के लिए जाना जाये। निसंदेह फ़िल्मी साहित्य में नए प्रयोग के लिए।

आपकी किसी रचना ने समाज पर कोई ठोस प्रभाव डाला हो, ऐसा कोई उदाहरण साझा करें।

आपने बहुत ही अच्छा और उपयुक्त सवाल किया है। मेरे पास एक बहुत ही अच्छा और अनुकरणीय उदाहरण है। इस उदाहरण को साझा करने से पहले मैं बहुत ही संक्षिप्त में उस रचना पर प्रकाश डालता हूँ जिसकी बात मैं करने जा रहा हूँ। मेरे पहले काव्य संघ्रह “रीत” का प्रकाशन वर्ष 2008 में हुआ था। यह काव्य संग्रह मेरी 73 स्वरचित ग़ज़ल और कविताओं का संकलन था, जो समीक्षा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया था। इसमें मेरी दो कविता “मां, मुझे तू जन्म दे” और “बेटी हूँ “ प्रकाशित हुयी थी। प्रकाशन के कुछ साल बाद वर्ष 2012 में, मैंने इन कविताओं का पाठन जोधपुर में एक कार्यक्रम में किया था। समय के साथ इस कार्यक्रम की स्मृति धूमिल हो गयी थी। लेकिन वर्ष 2019 में उस कार्यकम्र की स्मृति फिर जीवित हुई और पहली बार मुझे सामाजिक सरोकार से जुड़े लेखक होने का अपने आप पर गर्व हुआ। दिल को पहली बार इतनी लम्बी साहित्यिक यात्रा में एक आत्म संतुष्टि का एहसास हुआ। घटना ऐसी है कि मैं 2019 के फ़रवरी के महीने में दिल्ली मेट्रो में सफर कर रहा था और मुझे राजीव चौक मेट्रो स्टेशन से एम्स मेट्रो स्टेशन तक जाना था। मैं राजीव चौक स्टेशन पर मेट्रो के जिस कोच में चढ़ा और जिस सीट के पास जा कर खड़ा हुआ उसी सीट पर एक तीस – पैंतीस साल का व्यक्ति पहले से ही बैठा हुआ था। वह कुछ मिनट तक मुझे एकटक देखता रहा, शायद वो मुझे पहचानने की कोशिश कर रहा था। फिर कुछ मिनट के बाद वह अपनी सीट से खड़ा हो गया और पूछा कि – सर क्या आप बब्बन जी हैं? मैं उसके मुख से अपना नाम सुनकर चौंक गया। मैंने कहा – हाँ मैं, पर आप कौन? मैंने आपको पहचाना नहीं। वह मुझसे अपनी सीट पर बैठने की जिद करने लगा। लेकिन मुझे उसकी सीट पर बैठना सही नहीं लगा। मैंने कहा आप बैठिये। लेकिन वह व्यक्ति सीट पर नहीं बैठा। वह खड़े मुद्रा में मुझसे बातें करने लगा। बातों के दौरान मुझे पता चला कि उसने मेरी कविता “मां, मुझे तू जन्म दे” और “बेटी हूँ” को जोधपुर के कार्यक्रम में सुना था। उसने बताया कि वह जींद का रहने वाला है और एक छोटा सा व्यापारी है। उसके समाज में भ्रूण हत्या और बेटियों के प्रति असामनता की भावना बहुत ही आम है, लेकिन जब से उसने मेरी उन कविताओं को सुना, उसके जीवन में और उसके नजरिये में अचानक परिवर्तन आ गया। जब वो मेरी कविताओं को सुना था उस वक़्त वह अविवाहित था लेकिन वह आज दो बेटियों और एक बेटे का पिता है। उसने बड़े गर्व से बताया कि मेरी कविता “मां, मुझे तू जन्म दे” का एक अंश “ माँ देखना चाहती हूँ, कैसा होता है, मनुष्यों का संसार, कैसे दिल में अनुराग जगता है, कैसा होता है, साजन का घर-द्वार, कैसे एक बहु बन कर, रिश्तों को जोड़ा जाता है, कैसे एक माँ बनकर, अपशकुनों को हरा जाता है, कैसे दादी-नानी बनकर, राजा- रानी के किस्से कहे जाते हैं, कैसे एक बहन बनकर, भाई की जिंदगी के लिए, दुआएं की जाती है “ और “बेटी हूँ” कविता का अंश “ बेटे के लिए खीर की थाली, मेरे लिए विष की प्याली, एक ही दिल में, ये दो भाव क्यों हैं, बेटी हूँ क्या मेरा गुनाह यही है “ने उसके दिल को छू गया था और इसी कारण से उसने तय किया कि शादी के बाद वह बेटियों का भी पिता बनेगा और अच्छे से उनका लालन – पालन कर अपने समाज की कुरीतियों का माकूल जवाब देगा। उसने यह भी बताया कि जब उसकी बड़ी बेटी का जन्म हुआ था तो उसके परिवार में उसके अलावा कोई खुश नहीं था। फिर दूसरी बेटी का जन्म हुआ तो परिवार वालों से उलाहना मिलने लगा। लेकिन बेटे के जन्म के साथ यह उलाहना तो खत्म हो गया पर बड़े बुजर्गों द्वारा बेटा और बेटी के बीच भेदभाव देखकर मेरा मन दुखी रहने लगा। फिर वह अपने परिवार के साथ दिल्ली आकर रहने लगा। उसने यह जोड़ देकर बताया कि वह अब बेटा-बेटी के बीच कोई भेद नहीं करता है और सारे बच्चों को एक समान दुलार करता है। यह सुनकर मुझे उस पंद्रह -बीस मिनट में सफर के दौरान जो सुखद एहसास की अनुभूति हुई उसका मैं वर्णन नहीं कर सकता हूँ। सच कहूं तो उस दिन लगा कि मैं सच में एक लेखक हूँ।

बॉलीवुड के लिए लिखने और पारम्परिक साहित्य लिखने में क्या अंतर महसूस हुआ?

आपने बहुत ही अच्छा सवाल किया। इस सवाल से अनगिनत छुपे एवं आकांक्षी गीतकार जो बालीवुड में एक गीतकार के रूप में अपना भविष्य तलाश रहे हैं, को रास्ता मिलेगा। देखिये, जो सबसे बड़ा अंतर पारम्परिक साहित्य लिखने और बॉलीवुड के लिए साहित्य लिखने का है, वह है लिखने का कैनवास। जहाँ पारम्परिक लेखनी में लिखने का दायरा असीमित होता है,अभिव्यक्ति की आजादी होती है वहीं फिल्मों के लेखन का दायरा बहुत ही सीमित होता है और एक गीतकार के रूप में आपकी आजादी फिल्म की कहानी, कथा-वस्तु और वक़्त और दर्शकों की जरुरत से बंधी होती है। आपको वही लिखना होता है जो कहानी की मांग होती है। दृश्य की मांग होती है। आपके बोल और शब्द कहानी के प्लाट और पात्र की कहानी को दर्शकों के सामने तीन से चार अंतरा और चार से पांच मिनट के गाने के दौरान लाने का काम करता है। बॉलीवुड में एक सफल और दर्शकों का गीतकार वही व्यक्ति हो सकता है जो जितनी सरलता से, संगीत के मधुर बहाव के साथ दिल के अव्यक्त भावों और कहानी/वक़्त की जरुरत को ध्यान में रखते हुए, दिल को छू लेने वाला गीत लिखता हो। यही वो फर्क है जो एक फ़िल्मी लेखक और गीतकार को एक गैर फ़िल्मी लेखक से अलग करता है।

बॉलीवुड में साहित्य के महत्व को आप कैसे देखते हैं?

मैं जहाँ तक बॉलीवुड को समझ पाया हूँ, मुझे लगता है कि बॉलीवुड और साहित्य का सम्बन्ध बहुत ही गहरा है, प्रगाढ़ है। अगर फिल्मों का गुजरा कल देखे तो बॉलीवुड की कई मशहूर फ़िल्में किसी न किसी साहित्यिक कृति मसलन किसी न किसी उपन्यास, कहानी पर बनी हैं। उदाहरण के लिए गुजरे ज़माने की उत्कृष्ट फ़िल्में जैसे गाइड (1965), जो आर के नारायण के उपन्यास गाइड पर बनी थी। फिल्म दिल दिया दर्द लिया (1966) एमिली ब्रोंटे की रचना वुदरिंग हाइट्स से प्रभावित थी। फिल्म संकोच (1976) और परिणीता (2005) शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के अमर उपन्यास “ पोरिनीता” पर आधारित थी। इसी तरह फिल्म पिंजर (2003) अमृता प्रीतम की कालजयी कृति पिंजर पर आधारित थी। फिल्म सूरज का सातवां घोड़ा (1992) धर्मवीर भारती के उपन्यास, जो इसी नाम से था, पर बनी थी। अपने ज़माने की बेहद ही लोकप्रिय फिल्म नदिया के पार (1982) केशव प्रसाद मिश्र की कृति “कोहबर की शर्त” पर बनी थी। इस तरह अगर देखे तो ऐसी हिंदी फ़िल्में की सूची बड़ी लम्बी है जो किसी साहित्यकार की रचना पर बनी है या आधारित है। मेरी नजर में भारतीय सिनेमा और साहित्य का अटूट रिश्ता रहा है और बदलते समय के साथ साहित्य की महत्ता का बॉलीवुड ने खुले दिल से स्वीकार भी किया है। मैं धन्यवाद देना चाहता हूँ बॉलीवुड को, कि इसने भारतीय साहित्यकारों को एक बेहद उर्वर जमीं और सुकून भरा आसमान दिया, कितने रचनाकारों को फनकार बनाया। उन्हें भारतीय जन मानस के दिलों पर राज करने का सुअवसर प्रदान किया।

बॉलीवुड में आज के गीतकारों और संगीतकारों के बारे में क्या कहेंगें?

समय एक जैसा नहीं रहता है। बदलाव और परिवर्तन विकास का मानक और परिचायक है। भारतीय फिल्म का गुजरा अतीत भी गौरवशाली था और वर्तमान भी अप्रतिम संभावनाओं से भरा है। कल भी भारतीय फिल्म में एक से बढ़कर एक फनकार हुए और आज भी कई प्रतिभाशाली संगीतकारों और गीतकारों से गुंजायमान है। आज के गीतकार और संगीतकार गीत और धुनों के विन्यास में काफी काम कर रहे हैं। उम्मीद करता हूं कि भारतीय गीत और संगीत का यह वर्तमान दौर भारतीय फिल्म के लिए प्रयोगवाद के दौर के रूप में जाना जायेगा।

आगे की क्या योजनाए हैं – क्या हम आपके गीतों को आनेवाली और फिल्मों में सुनेगें ?

अगर ऊपर वाले की रहमत यूँ ही मुझपर बनी रहे तो और आप सबों का आशीर्वाद और प्यार बना रहा तो, यक़ीनन आप मेरे लिखे गाने को फ़िल्मकार कमल चंद्रा की आनेवाली दो और फिल्मों में सुनेगें, जिसकी कहानी दिल को छू लेनेवाली है। इसके अलावा कुछ और फिल्मों का प्रस्ताव आया है जिस पर मुझे अभी निर्णय लेना है। इसके अलावा, मेरी लिखी कहानी “जिंदगी-ऐ-जिंदगी “ पर भी फिल्म बनाने का प्रस्ताव है। इस प्रस्ताव पर भी विचार कर रहा हूँ।

 

 

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button