सिने पर्सनैलिटी

निर्देशन के क्षेत्र में चुनौतीयां मुझे पसंद हैं : रुनझुन जैन

 

‘मोर छंइहा भुईयां-2’ के पात्रों का आपस में भावनात्मक संबंध फिल्म का सबसे सशक्त पक्ष है

छत्तीसगढ़ी फिल्म इंडस्ट्री की उभरती हुई निर्देशक रुनझुन जैन से गुरबीर सिंघ चावला की विशेष बातचीत-

 

रुनझुन जैन

फिल्म निर्देशक

 

 

आपको सिनेमा की समझ विरासत में ही मिलने लगी थी। बचपन में जब आप अपने पापा सतीश जैन से फिल्मों की बातें सुनती थीं आप क्या सपने बुनती थी, आपकी क्या फीलिंग्स होती थीं?

 

सिनेमा की समझ विरासत में ही मिली। अपनी प्रतिभा को साबित कर सकूं इसके लिए सिनेमा की समझ मुझे अपने पारिवारिक माहौल से ही मिलने लगी थी और मेरी इसमें गहरी दिलचस्पी भी थी। मेरे अंतर्मन की ही आवाज़ थी कि मुझे एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में जाना है और एक निर्देशक के रूप में अपनी पहचान बनानी है। पापा ने कभी मुझे दबाव नहीं डाला कि मैं सिनेमा के क्षेत्र में ही जाऊं। उनकी इच्छा थी कि मैं यूपीएससी की पढ़ाई करूं परन्तु मेरी रुचि निर्देशन में ज्यादा थी। निर्देशन के क्षेत्र में मेरा घर ही मेरा पहला स्कूल रहा, पापा मेरे ट्रेनर और मार्गदर्शक। मेरी फीलिंग्स में बहुत एक्साईटमेंट होता था कि क्रिएटिव फील्ड में मुझे कुछ अचीव करना है।

 

सिनेमा में अपना करियर बनाने के लिए आपने निर्देशन को ही क्यों चुना? यह काम आपको कितना चुनौतीपूर्ण लगता है?

 

सिनेमा के क्षेत्र में मैंने निर्देशन को इसलिए चुना क्योंकि कहानियां बनाना और पात्रों को गढ़ना अच्छा लगता था। मेरा यह शौक अपने आप बढ़ता चला गया। मैं सोचती थी कि अपना विज़न लोगों तक कैसे पहुंचाऊं। इसके लिए सिनेमा और निर्देशन का माध्यम मुझे सटीक लगा। हम जो भी कथानक या कहानियां सिनेमा के परदों में देखते हैं ज्यादाकर उनका मूल वही होता है बस निर्देशक की दृष्टि से उसका प्रस्तुतिकरण और पात्र बदल जाते हैं। मुझे भी यह चीज आकर्षित करती है कि मैं किसी कथानक को अपने विजन से साकार करूं। निर्देशन के क्षेत्र में हम जितनी गहराई में जाते हैं उतनी ही काम में परिपक्वता आती जाती है और कुछ नया देने के अवसर मिलते है। निर्देशन अपने आप में बेहद चुनौतिपूर्ण काम है। सेट पर दिनभर खड़े रहकर पूरी टीम के साथ काम में सामंजस्य बनाए रखना होता है। एक निर्देशक को शारीरिक और मानसिक रूप से काफी मेहनत करनी पड़ती है। एक निर्देशक के लिए सेट पर काम करते हुए रोज एक नई चुनौती आती है। निर्देशन के क्षेत्र में चुनौतियां मुझे पसंद हैं।

अपने करियर की शुरुआत में ही आपको छत्तीसगढ़ी फिल्मों के दो सिद्धहस्त निर्देशकों सतीश जैन और मनोज वर्मा के साथ काम करने का मौका मिला। दोनो की कार्यशैली में क्या अंतर और विशेषताएं आपने देखी?

 

निर्देशन के कुछ करने के अवसर मुझे अपने कैरियर के शुरू में ही मिल गए इसके लिए मैं स्वयं को भाग्यशाली मानती हूं। छत्तीसगढ़ी सिनेमा इंडस्ट्री के दो बड़े और स्थापित निर्देशक सतीश जैन और मनोज वर्मा के साथ काम करने का एक अलग ही अनुभव रहा है। बचपन से ही मनोज वर्मा जी के स्वप्निल स्टुडियो में जाया करती थी लेकिन मैने यह सोचा नही था कि मैं उनके साथ सहायक निर्देशक के रूप में काम करूंगी। दोनों निर्देशकों की कार्यशैली की अपनी अलग-अलग विशेषताएं हैं। सबसे बड़ी बात है कि दोनों डायरेक्टर्स सीन की डिमांड के हिसाब कलाकारों से अभिनय करवाने की काबिलियत रखते हैं। कलाकार भी पूरी जीवन्तता के साथ काम करते हैं। पापा अपने सैट पर शूटिंग के दौरान सीरियस रहते हैं। मनोज जी के सैट पर माहौल कुछ अलग होता है। उनके सेट पर शूटिंग के साथ-साथ कुछ हंसी-मजाक भी चलता रहता है और काम भी अच्छे से हो जाता है।

पापा के फिल्मी कैरियर की सफलता में मम्मी (सरिता जी) का कितना योगदान है। क्या दोनों में वैचारिक मतभेद होते हैं। आपकी नजर ज्यादा सपोर्टिव कौन है?

 

पापा के फिल्म कैरियर की सफलता में मम्मी का काफी योगदान है। फिल्मों के विभिन्न पहलुओं पर पापा, मम्मी की राय लेते हैं। विशेषकर गानों के मामले में। गानों को लेकर मम्मी का जजमेंट बहुत अच्छा होता है। दोनों में वैचारिक मतभेद भी होते हैं। फिल्म के विभिन्न पहलुओं पर कभी-कभी मम्मी-पापा की राय अलग अलग होती है पर आपसी सामंजस्य भी होता है । दोनों एक-दूसरे के विचारों का सम्मान करते हैं और दोनों मिलकर सकारात्मक हल निकाल लेते हैं। दोनों एक दूसरे के लिए सर्पोटिव रहे हैं।

 

बतौर सहायक निर्देशक / निर्देशक आपका पहला प्रयास कौन सा था। अपने पहले प्रयास को आप कितना सफल मानती हैं?

 

पहली बार मैंने असिस्टेंट डायरेक्टर के रूप में ‘चल हट कोनो देख लिही’ फिल्म के लिए काम किया। यह फिल्म मेरे लिए फिल्म मेकिंग को ‘आब्सर्व’ करना था। फिल्म की तकनीकों और विभिन्न पक्षों को समझने का इस सैट पर मुझे अवसर मिला। निर्देशक के रूप में कैरियर के दरवाजे शार्ट फिल्म ‘पिचकारी’ के जरिए खुले। यह शार्ट फिल्म मनोज वर्मा जी ने प्रोड्यूस की थी। इस प्रोजेक्ट में मैंने स्वतंत्र निर्देशक के रूप में किया। ‘पिचकारी’ को निर्देशित करने के लिए मनोज जी ने ही मुझे प्रेरित किया था। ‘पिचकारी ’ फिल्म का निर्देशन करने के बाद मेरा आत्मविश्वास प्रबल हो गया कि निर्देशन में मैं अपना टैलेंट साबित कर सकती हूं। अपने पहले प्रयास को सफल कहने की बजाय सिनेमा की गहराई को समझने की पहली सीढ़ी मानती हूं।

सतीश जैन और मनोज वर्मा के साथ आपने कौन कौन सी फिल्मे की हैं?

 

पापा के प्रोजेक्टस की बात करें तो मैंने ‘चल हट कोनो देख लिही’ किया है। ‘ले शुरू होगे मया के कहानी’ में सहायक निर्देशक के रूप में काम किया। मैं इसके पूरे शेड्यूल में थी। ‘मोर छईया भुंईया-2’के भी पूरे शेड्यूल में मैंने काम किया है। मनोज वर्मा जी की बात करें तो इनकी फिल्म ‘सुकवा’ के लास्ट शेड्यूल में मैंने सहायक निर्देशक के रूप में काम किया है।

 

इन दिनो बहुत सारी छत्तीसगढ़ी फिल्में निर्मित हो रही हैं। अधिकांश फिल्में असफल हो रही हैं। बहुत कम फिल्में कलात्मक और व्यवसायिक रूप से सफल हो पाती हैं। एक निर्देशक के रूप में फिल्मों की असफलता के क्या कारण आप मानती हैं, क्या सुधार होने चाहिए?

 

मैं अभी भी अपने आपको निर्देशक नहीं मानती हूं। निर्देशन का सफर अभी शुरू किया है। सफलता का रास्ता आसान नहीं है, अभी कई पड़ाव पार करने बाकी हैं। अभी मैं सीख रही हूं। सीखते रहना और नया करते रहना ही एक क्रिएटिव व्यक्ति की पहचान होती है। जहां तक छत्तीसगढ़ी फिल्में जो सफल नहीं हो पा रही है उसके कई कारण हैं। मुझे लगता है सबसे बड़ा कारण है पटकथा का कमजोर होना। कहानी और पटकथा फिल्म की सफलता का आधार होती है। कई बार ऐसा होता है कि कहानी और पटकथा सशक्त होती है पर निर्देशन में कमी रह जाती है और फिल्म का प्रेजेन्टेशन कमजोर हो जाता है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों का तकनीकी पक्ष निश्चित रूप से मजबूत हुआ है लेकिन, फिल्म के प्रस्तुतिकरण में कहीं न कहीं कमी रह जाती है। फिल्मों की सफलता और असफलता पर कोई ज्यादा राय देना मैं ठीक नहीं समझती। अभी मैं सिनेमा की स्टुडेंट हूं। फिल्म की सफलता के लिए सभी पक्षों में सामंजस्य और प्रस्तुतिकरण अच्छा होना चाहिए।

किसी भी फिल्म की सफलता में फिल्म का संगीत बहुत महत्वपूर्ण होता है। आपकी फिल्म “मोर छहियां भुईयां 2” का संगीत कैसा बना है। गीत, संगीत और स्वर किनके हैं। इसका संगीत कितना लोकप्रिय हो रहा है?

 

फिल्म की सफलता में फिल्म का संगीत बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। ‘मोर छंइहा भुईयां-2’ का संगीत बहुत पहले ही बन चुका था। पापा ने पार्ट-2 के संगीत पर काफी पहले से एक रूपरेखा बना रखी थी। पापा ने इसके गीत लिखे हैं। संगीत सुनील सोनी का है। सुनील सोनी, नितिन दुबे, अनुपमा मिश्रा, कंचन जोशी, श्रद्धा मंडल ने अपने स्वर दिए हैं। फिल्म का संगीत सिचुएशन के हिसाब से बना है। फिल्म का हर गीत एक सिचुएशन पर आधारित है। फिल्म में जिस तरह से घटनाक्रम आते जाते हैं उस हिसाब से गीत आते हैं। ‘मोर छंइहा भुईयां-2’ का संगीत काफी लोकप्रिय हो चुका है। इसका एक गीत ‘मया के मौसम हे’ दो मिलियन व्यूज तक पहुंचने वाला है। बाकी गीत भी बहुत पसंद किए जा रहे हैं। सभी गाने अलग-अलग मूड्स में हैं जो काफी अच्छे बने हैं।

आपकी आने वाली फिल्म “मोर छइयां भुईआ 2“ की सफलता को लेकर आप कितनी आश्वस्त हैं। दर्शकों से क्या कहना चाहेंगी?

 

फिल्म ‘मोर छंइहा भुईयां-2’ बहुत ही प्यारी फिल्म बनी है। फिल्म के संगीत की अपार लोकप्रियता को देखते हुए हम आशान्वित हैं कि यह फिल्म जरूर सफल होगी। फिल्म की सफलता-असफलता का फिल्म के प्रदर्शन के पूर्व कोई निश्चित आंकलन करना बहुत ही कठिन होता है। पुरानी ‘मोर छंइहा भुईयां’ का प्रभाव और अपनापन इस फिल्म में बहुत अच्छे से दर्शक महसूस करेंगे। जो इमोशन्स और फिलिंग्स पहली फिल्म में थी वो इसमें भी है। उम्मीद है हम दर्शकों की उम्मीदों पर खरा उतरेंगे।

 

एक निर्देशक के रूप में “मोर छहियां भूईयां 2” का सबसे सशक्त पक्ष आप क्या मानती हैं?

 

हमारी फिल्म का सबसे सशक्त पक्ष यही है कि यह फिल्म ‘मोर छंइहा भुईयां’ है। यह फिल्म दर्शकों को भावनात्मक रूप से फिल्म की शुरूआत से अंत तक जोड़कर रखेगी। फिल्म में सभी पात्र एक-दूसरे से काफी इमोशनली जुड़े हुए हैं, चाहे वह बाप-बेटे का संबंध हो, दादा-दादी का रिश्ता हो, रोमांटिक रिलेशनशिप हो, भाई-भाई का संबंध हो। सभी कलाकारों ने जीवन्त अभिनय किया है । फिल्म में विभिन्न किरदारों ने भावनात्मक रिलेशन्स को पापा के निर्देशन में बखूबी निभाया है यही फिल्म का सशक्त पक्ष है।

 

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